*शिव-पार्वती की 'अनोखी' मूर्ति, दूसरी काशी के नाम से प्रसिद्ध है शिव-पार्वती का शिवद्वार धाम*
*विमल कुमार कुशवाहा।।विनोद कुमार सिंह।।*
*सोनभद्र।।* सोनभद्र जिले के शिवद्वार धाम में स्थापित उमामहेश्वर की अप्रतिम मूर्ति के संबंध में ऐसी मान्यता है कि 11वीं सदी के चौथे दशक में खेत में हल चलाते समय गांव के मोती महतों नामक किसान को सतद्वारी गांव में प्रसिद्ध उमामहेश्वर की अप्रतिम मृर्ति मिली थी। गांव के जमींदार परिवार की बहुरिया अविनाश कुवरि द्वारा शिवद्वार मंदिर का निर्माण कराया। दूसरी और यह भी कहा जाता है यहां पर लंका नरेश भी आए हुए थे।
*वर्ष 1938 में मृर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कराई गई थी।*
कालान्तर में ज्योतिष पीठाधीश्वर शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती द्वारा मंदिर का सुन्दरीकरण एवं मंदिर परिसर में ज्योतिर्लिंग की स्थापना कराई गई थी।
*सृजन मुद्रा में रखी है शिव पार्वती की मूर्ति*
शिवद्वार मंदिर यूपी के सोनभद्र जिले के रॉबर्ट्सगंज के पश्चिम में 40 किमी. दूर, शिवद्वार रोड़ पर घोरवाल से 10 किमी. की दूरी पर स्थित है।
यह विशाल मंदिर, भगवान शिव और उनकी पत्नी पार्वती को समर्पित है। इस मंदिर के गर्भगृह में देवी पार्वती की 11 वीं सदी की काले पत्थर की मूर्ति रखी हुई है। यह तीन फुट ऊंची मूर्ति सृजन मुद्रा में रखी हुई है जो एक रचनात्मक मुद्रा है।
यह मंदिर उस काल के शिल्प कौशल के बेहतरीन नमूने और शानदार कला का प्रदर्शन करता है। यह मंदिर, मौद्रिक मूल्य के संदर्भ में भी बहुत कीमती है। यह मंदिर, क्षेत्र के सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है। इस क्षेत्र के निवासी इस मंदिर को धार्मिक महत्व के कारण दूसरी काशी व गुप्त काशी के रूप में मानते है। इस मंदिर में अन्य देवी - देवताओं की काले पत्थर की मूर्तियां भी रखी हुई हैं।
*1986 में शुरू हुई कांवड़ यात्रा, पूर्वांचल भर से आते है भक्त*
प्रसिद्ध शिवद्वार धाम में कांवड़ यात्रा आरंभ वर्ष 1986 में में हुआ। उस समय घोरावल नगर के 13 युवकों द्वारा मिर्जापुर के बरियाघाट से गंगाजल लाकर कांवर यात्रा की शुरूआत की गई थी। वर्ष 1991 में सोनभद्र के विजयगढ़ दुर्ग से कांवड़ यात्रा प्रारम्भ कराया गया था। आज लाखों कांवड़ियों के लिए शिवद्वार धाम आस्था का केन्द्र बन चुका है। पूरे पूर्वांचल से शिवभक्त कांवड़ लेकर आते हैं।
*शिवद्वार धाम मंदिर और कथा*
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के मुख्यालय रॉबर्ट्सगंज के पश्चिम में 40 किलोमीटर तथा मीरजापुर से करीब 52 किलोमीटर स्थित घोरावल से 10 किमी दूरी पर उमा माहेश्वर मंदिर शिवद्वार धाम स्थित है।
यह विशाल मंदिर भगवान शिव और उनकी पत्नी पार्वती को समर्पित है। इस मंदिर के गर्भगृह में देवी पार्वती की 11 वीं सदी की काले पत्थर की मूर्ति स्थापित की गयी है जो अपने आप में ही अद्भुत नजर आती है।
तीन फुट ऊंची मूर्ति सृजन मुद्रा में निर्मित की गयी है। एक रचनात्मक मुद्रा है। यह विशाल प्रतिमा उस काल के शिल्प कौशल के बेहतरीन नमूने और शानदार कला का प्रदर्शन करता है। यह मंदिर, क्षेत्र के सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है। इस क्षेत्र के निवासी इस मंदिर को धार्मिक महत्व के कारण दूसरी काशी के रूप में मानते है।
कई सदियां बीत जाने के बाद ऐसे पौराणिक स्थलों का कोई लिखित साक्ष्य तो नहीं मिलता किन्तु पीढ़ियों से चली आ रही किंवदन्तियों को ही सत्य मान लिया जाता है। मंदिर से जुड़े शैलेन्द्र गिरी ने बताया कि इस मंदिर का देखरेख और पूजा पाठ सात पीढ़ियों से उनके ही परिवार के हाथ में है।
श्री गिरी ने बताया कि खेत में हरवाहे हल चला रहे थे, अचानक एक हल के नीचे का लौह भाग जमीन में किसी पत्थर से फंसकर रूक गया। हल जहां पर रूका था वहां से अचानक रक्त, दूध और जल की धारा प्रवाहित होने लगी। हरवाहा भाग कर गांव में गया और लोगों को जनकारी दी। गावं वाले जब उस स्थान की मिट्टी को हटाये तो वहां पर काले पत्थरो से निर्मित भगवान शिव और पार्वती की मूर्ति पड़ी थी। लोगों ने मूर्ति को हटाने का प्रयास किया किन्तु कोई भी मूर्ति को टस से मस नहीं कर पाया। लिहाजा लोग मायूस होकर लौट आये।
रात को एक किसान को स्वप्न आया, जिसमें शिव जी ने कहा पास के श्मशान भूमि में उनका मंदिर बनाकर प्रतिमा को स्थापित किया जाये। उसके बाद उस किसान ने सुबह स्वप्न की बात सभी को बतायी और स्वप्न में बतायी गयी जमीन पर जहां एक घना बगीचा भी था, वहीं एक पेड़ के नीचे लोगों ने प्रतिमा लाकर स्थापित कर पूजा पाठ शुरू कर दी। इसके पश्चात 1942 में मंदिर का निर्माण हुआ।
एक बार इस स्थल पर हिमालय से जगतगुरू शंकराचार्य स्वामी विष्णु देवानन्द सरस्वती जी महराज आये और बताया कि शिव पार्वती की यह प्रतिमा पूजनीय नहीं बल्कि अवलोकनीय है। तत्पश्चात उन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार किया और 23 अप्रैल 1985 को शिवलिंग की स्थापना की। लोगों का कहना है कि मंदिर में श्रद्धापूर्वक पूजन करने पर भक्तों की मनोकामना पूर्ण होती है। जिन लोगों की मनोकामना पूर्ण हुई है उनलोगों ने यहां पर कुछ अन्य मंदिर व हवनकुण्ड भी बनाये हैं।
शिवद्वार को क्यों कहा गया गुप्त काशी
शिव द्वार धाम को गुप्त काशी के नाम से भी जाना जाता है। हालांकि कुछ लोगों का यह भी कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से इसे गुप्त काशी का नाम दिया गया है। यह बात इससे भी प्रमाणित होती है कि जब मंदिर का जीर्णोद्धार स्वामी शंकराचार्य जी ने किया था उस दौरान मंदिर में एक शिलापट्ट भी लगाया गया था, लेकिन उस शिलापट्ट में कहीं भी गुप्त काशी का जिक्र नहीं है। फिर भी गुप्त काशी के संदर्भ में एक किंवदन्ती प्रचलित है। यहाँ के निवासी मानते हैं कि यहाँ की चट्टानों में भगवान शंकर के आसन की छवि दिखाई देती है।
मान्यता है कि अहंकार के कारण दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में देवाधिदेव शिव को अनुष्ठान में नहीं बुलाया और पति के अपमान से दुखी सती ने पिता के अहंकार का नाश करने के लिए अपनी देह का त्याग कर दिया। इससे क्रुद्ध होकर शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र की उत्पत्ति की और उसे दक्ष का वध करने का आदेश दिया। वीरभद्र ने दक्ष का वध किया तो शिव के गणों ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंश कर दिया। बाद में देवताओं के समझाने पर शिव ने दक्ष के कटे सर की जगह बकरे का सर लगा दिया।
दक्ष के अहंकार का मर्दन करने के पश्चात भगवान शंकर पार्वती के सती होने के चलते बड़े ही खिन्न मन से वहां से चले गए। कहते हैं शिव ने सोनभूमि सोनभद्र का रुख किया। यहाँ शिव ने सोनभूमि के अगोरी क्षेत्र में कदम रखा। जहाँ शिव ने इस इलाके में सबसे पहले चरण रखे, उसे आज शिवद्वार के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि दक्ष के यज्ञ से वापस लौटने पर वहां के घटना से शिव इतने खिन्न हुए कि यहाँ अगोरी क्षेत्र में उन्होंने अज्ञातवास का निर्णय ले लिया। शिव के गुप्त स्थान पर अज्ञातवास करने के चलते इस क्षेत्र को ‘गुप्तकाशी’ के नाम से जाना जाता है।
यहां शिवलिंग नहीं शिवप्रतिमा पर होता है जलाभिषेक
हर वर्ष महाशिवरात्रि और बसंतपंचमी पर विशाल मेला लगाता है किन्तु श्रावण माह पूरे महीने मेला नगा रहता है। सावन के महीने में पूरे देश में भगवान शंकर के लिंग पर जल चढ़ाने की प्रथा है, लेकिन शिवद्वार में ही मूर्ति पर जल चढाने की प्रथा है। बताते हैं यहाँ कि काले पत्थर से बनी शिव-पार्वती की मूर्ति अलौकिक है।
देश में शायद ही कहीं और शिव की ऐसी प्रतिमा देखने को मिले और शायद ही कहीं यिाव प्रतिमा पर जलाभिषेक होता हो। सावन के महीने में यहाँ कांवड़िए मीरजापुर में गंगा नदी से और विजयगढ़ किले में स्थित तालाब से जल लाकर मूर्ति पर चढाते हैं। यहाँ मंदिर परिसर में श्रद्धालु अपनी मनौतियाँ पूरी होने पर कथा के साथ-साथ मुंडन, शादी जैसे आयोजनों के लिए भी आते हैं।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें